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शनिवार, 1 अगस्त 2020

Shree Ram Mandir Nirman

 राम मंदिर (Ram Mandir) निर्माण को लेकर अयोध्या में आज श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की अहम बैठक हुई. इस बैठक में मंदिर के भूमि पूजन की तारीखों के साथ मॉडल में बदलाव पर भी बड़ा फैसला लिया गया. जानकारी के मुताबिक, राम मंदिर की ऊंचाई और आकार में बदलाव का निर्णय लिया गया है. राम मंदिर का निर्माण जिस दिन से शुरू होगा, उस दिन से करीब 3 या साढ़े तीन साल का वक्त लगेगा. इसके अलावा मंदिर निर्माण के लिए समाज से धन संग्रह किया जाएगा.


राम मंदिर ट्रस्ट के सदस्य कामेश्वर चौपाल ने बताया कि प्रस्तावित राम मंदिर मॉडल 128 फीट ऊंचा है, जिसे बढ़ाकर 161 फीट ऊंचा करने का फैसला लिया गया है. इसके अलावा गर्भगृह के आसपास अब 5 गुंबद बनाए जाएंगे, जबकि पहले तीन गुंबद बनने थे.

 मंदिर का मॉडल

राम मंदिर ट्रस्ट के सदस्य कामेश्वर चौपाल ने कहा कि राम मंदिर प्रारूप के भू-तल वाले हिस्सों के पत्थरों की तराशी पूरी हो चुकी है. राम मंदिर के भू-तल में सिंहद्वार, गर्भगृह, नृत्यद्वार, रंगमंडप बनेगा. वहीं प्रथम तल पर राम दरबार की मूर्तियों को स्थान दिया जाएगा. यही नहीं प्रस्तावित राम मंदिर के मॉडल के मुताबिक मंदिर में 24 दरवाजों का चौखट होगा, जो कि संगमरमर के पत्थरों से बनाया जाएगा. इन संगमरमर के पत्थरों पर राजस्थान के मकराना में काम चल रहा है.

अग

उन्होंने बताया कि प्रस्तावित राम मंदिर की लंबाई 268 फीट, चौड़ाई 140 फीट और ऊंचाई-128 फीट तय की गई हैइसके अलावा मंदिर में 212 खंभे होंगेजिसमें से पहली मंजिल में 106 खंभे और दूसरी मंजिल में 106 खंभे बनाए जाएंगेप्रत्येक खंभे में 16 मूर्तियां होंगी और मंदिर में दो चबूतरे भी होंगे


चारों दिशाओं में होंगे द्वार
कामेश्वर चौपाल ने बताया कि मंदिर में 4 द्वार होंगे जो कि चारों दिशाओं में खुलेंगे. एक द्वार टेढ़ी बाजार, दूसरा द्वार क्षीरेश्वररनाथ मंदिर की तरफ, तीसरा द्वार गोकुल भवन और चौथा द्वार- दशरथ महल की तरफ से (ये मुख्य रास्ता होगा) खुलेगा, इसके अलावा भूतल पर रामलला, प्रथम तल पर राम दरबार होगा. खास बात यह है कि इसके लिए सीमेंट और मौरंग का इस्तेमाल नहीं  किया जाएगा.

राम मंदिर परिसरजानकारी के मुताबिक, राम मंदिर के प्रांगण में रामकथा कुंज 45 एकड़ में बनेगा. यहां 125 मूर्तियां भगवान राम के जीवन काल की बनाई जाएंगी. जन्म काल से लेकर लंका विजय और राजगद्दी तक की मूर्तियों का लगाया जाएगा. इसके अलावा मंदिर परिसर में धर्मशाला और गौशाला भी बनाया जाएगा|

कामेश्वर चौपाल ने कहा कि पीएम मोदी अयोध्या आएंगे.  5 अगस्त को पीएम मोदी के हाथों ही मंदिर निर्माण का शिलान्‍यास किया जाएगा. पीएम को निवेदन कर दिया गया है. तिथियों का सुझाव दे दिया गया है, आखिरी निर्णय PMO करेगा.

शनिवार, 13 जून 2020

स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ...

Swadeshi Apnao Desh Bachao 


Swadeshi Apnao Desh Bachao Naare – किसी देश का विकास उसकी आत्मनिर्भरता पर होता है, और कोई भी देश तभी आत्मनिर्भर बन सकता है, जब उसकी आवश्कयता की पूर्ति के लिए उसे दुसरे देशो पर निर्भर नही रहना पड़ता है, बल्कि उसकी आवश्कयताओ की पूर्ति के सामान उसके देश में ही बनती हो, या मिल जाती हो,

तो चलिए इस पोस्ट में  स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ पर नारे, Swadeshi Apnao Desh Bachao Naare Nare Slogan शेयर कर रहे है, जिसे आप लोगो को स्वदेशी के Naare Slogan, आत्मनिर्भर बने भारत नारे के जरिये लोगो जागरूक कर सकते है.

आओ करे प्रण, भारत बने आत्मनिर्भर

आत्मनिर्भरता को बढ़ाये, भारत को स्वदेशी बनाये

आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना, भारत को स्वदेशी बनाना

Swadeshi Apnao Desh Bachao Naare Slogan in Hindiस्वदेशी अपनाओ देश बचाओ

शुक्रवार, 22 मई 2020

जीवन का आरंभ



**विष्णु पुराण के अनुसार जीवन का आरम्भ: विस्तृत वर्णन**

विष्णु पुराण हिंदू धर्म के अठारह महापुराणों में से एक है, जो भगवान विष्णु की महिमा और सृष्टि के आरम्भ का वर्णन करता है। इसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति, देवताओं, ऋषियों और अन्य पौराणिक कथाओं का वर्णन मिलता है। 

 सृष्टि की शुरुआत
विष्णु पुराण के अनुसार, सृष्टि के आरंभ में केवल विष्णु ही अस्तित्व में थे। वे अनंत सागर में शेषनाग पर योगनिद्रा में शयन कर रहे थे। इस स्थिति को 'योगनिद्रा' कहा जाता है, जो सृजनात्मक ऊर्जा के संग्रहण की स्थिति है।

 ब्रह्मा का जन्म
भगवान विष्णु के नाभि से एक कमल का फूल प्रकट हुआ। इस कमल के पुष्प पर ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्मा जी को सृष्टि का रचयिता माना जाता है। भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी को सृष्टि की रचना का कार्य सौंपा।

 सृष्टि की रचना
ब्रह्मा जी ने सबसे पहले चार सनतकुमारों की रचना की: सनक, सनन्दन, सनातन, और सनत्कुमार। ये सभी ब्रह्मचारी रहे और संसार की रचना में भाग नहीं लिया। 

इसके बाद, ब्रह्मा जी ने रुद्र की रचना की, जो भगवान शिव के रूप में जाने जाते हैं। रुद्र को सृष्टि के विनाश का कार्य सौंपा गया।

 मनु और प्रजापति
ब्रह्मा जी ने फिर मनु और शतरूपा की रचना की। मनु को मानव जाति का प्रथम पुरुष और शतरूपा को प्रथम स्त्री माना जाता है। इनसे मानव जाति की उत्पत्ति हुई।

इसके बाद ब्रह्मा जी ने विभिन्न प्रजापतियों की रचना की, जिन्होंने जीवों और अन्य प्राणियों की सृष्टि की। प्रजापतियों ने अपने तप, यज्ञ और संतानों के माध्यम से विभिन्न जीवों और मानव जाति की उत्पत्ति की।

 सृष्टि का विस्तार
प्रजापतियों ने विविध योनियों (प्रजातियों) की रचना की। इससे संपूर्ण जीव जगत की उत्पत्ति हुई। देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पशु, पक्षी, और सभी प्रकार के जीव-जंतु प्रजापतियों के माध्यम से सृष्टि में आए।

 ब्रह्मांड का संचालन
भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में माने जाते हैं। वे इस संसार के संचालन और संरक्षण का कार्य करते हैं। भगवान विष्णु के विभिन्न अवतार, जैसे राम, कृष्ण, और अन्य, ने समय-समय पर पृथ्वी पर आकर धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश किया।

 निष्कर्ष
विष्णु पुराण में सृष्टि की रचना और जीवन के आरम्भ का वर्णन गहन और व्यापक रूप में किया गया है। यह पुराण न केवल सृष्टि के वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है, बल्कि इसमें धार्मिक और आध्यात्मिक तत्व भी शामिल हैं। भगवान विष्णु की इच्छा और ब्रह्मा जी के सृजनात्मक कार्यों के माध्यम से सृष्टि का आरम्भ हुआ और यह पुराण हमें जीवन के रहस्यों को समझने में सहायता प्रदान करता है।

रविवार, 3 मई 2020

सनातन धर्म



सनातन धर्म, जिसे हिंदू धर्म के रूप में भी जाना जाता है, दुनिया के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। यह धर्म भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुआ और लाखों वर्षों से लोगों द्वारा मान्यता प्राप्त है। 

### सनातन धर्म के मुख्य सिद्धांत

1. **वेद**: वेद सनातन धर्म के सबसे प्राचीन और पवित्र ग्रंथ हैं। इन्हें चार भागों में विभाजित किया गया है - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

2. **धर्म**: यह कर्तव्य, नैतिकता और सही आचरण पर आधारित है। धर्म जीवन के सभी पहलुओं को समाहित करता है, जिसमें व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों का पालन शामिल है।

3. **कर्म**: यह सिद्धांत कहता है कि हर व्यक्ति का प्रत्येक कार्य उसके भविष्य को प्रभावित करता है। अच्छे कर्म अच्छे फल लाते हैं और बुरे कर्म बुरे परिणाम देते हैं।

4. **पुनर्जन्म**: सनातन धर्म में विश्वास है कि आत्मा अमर है और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म लेती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती।

5. **मोक्ष**: यह अंतिम लक्ष्य है जिसमें आत्मा संसार के जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है और परमात्मा के साथ एक हो जाती है।

### पूजा और अनुष्ठान

सनातन धर्म में विभिन्न प्रकार की पूजा और अनुष्ठान होते हैं। इनका पालन करने से व्यक्ति आध्यात्मिक शांति और भगवान की कृपा प्राप्त करता है। प्रमुख अनुष्ठानों में ध्यान, योग, यज्ञ, व्रत और तीर्थ यात्रा शामिल हैं।

### देवी-देवता

सनातन धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। प्रत्येक देवता एक विशेष शक्ति या गुण का प्रतिनिधित्व करता है। प्रमुख देवी-देवताओं में भगवान शिव, भगवान विष्णु, देवी लक्ष्मी, देवी दुर्गा, भगवान गणेश और भगवान कृष्ण शामिल हैं।

### संस्कृति और परंपरा

सनातन धर्म केवल एक धर्म ही नहीं, बल्कि एक जीवन जीने का तरीका है। यह संस्कृति, परंपरा, और नैतिक मूल्यों का एक समृद्ध संकलन है। त्योहार, संगीत, नृत्य और साहित्य इस धर्म का अभिन्न हिस्सा हैं, जो इसे जीवंत और गतिशील बनाते हैं।

सनातन धर्म का प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे विश्व में फैल चुका है। इस धर्म की शिक्षाएं और सिद्धांत आज भी लोगों को प्रेरित और मार्गदर्शित करते हैं।

गीता सार

भगवद प्राप्ति में ८ प्रकार के विग्ना आते हैं उनसे बचें तो भगवदप्राप्ति सहज हो जाये …-
१ आलस्य : अच्छा काम करने में आलस्य , परमार्थ में ढील करना , जप-ताप में ढील करना , ईश्वर प्राप्ति के साधन में चलो बाद में करेंगे …
२ विलासिता : सम्भोग से १० प्रकार की हानि |
३ प्रसिद्धि की वासना : आदमी को बहिर्मुख केर देती है , प्रसिद्धि की वासना में आदमी न करने जैसे काम केर लेता है …
४  मन , बढ़ाई , इर्ष्या : अपने से जादा कोई सुखी है , अपने से जादा कोई समजदार है अपने से ज्यादा  किसी की प्रसिद्धि है तो उसको देख कर मन में जो इर्ष्या होती है वो भी साधक को नहीं आने देनी चाहिए …
५ अपने में गुरुभाव की स्थापना करना : मै जानकार हूँ , मै बड़ा गुरु हूँ , मै बड़ा श्रेष्ठ हूँ , अपने में गुरु मन बड़ा भाव धारण करना …
६ बाहरी दिखावा : घर का , धन का , सत्ता का , बुद्धिमत्ता का दिखावा ….
७ परदोष चिंतन : किसी के दोष देख कर अपने को दोषी क्यों बनाना
८ संसारी कार्यों की अधिकता : विश्रांति भी छूट जाती है , ध्यान भजन भी छूट जाती है और चित्त को भगवान का आराम पके भगवद रस पाना भियो छुट जाता है ..

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

Hindu puran

Hindu purano ke anusar pralay ke prakar


कितने प्रकार की है प्रलय : हिन्दू पुराणों में प्रलय के चार प्रकार बताए गए हैं- 1.नित्य, 2.नैमित्तिक, 3.द्विपार्थ और 4.प्राकृत। एक अन्य पौराणिक गणना अनुसार यह क्रम है 1.नित्य, 2.नैमित्तक, 3.आत्यन्तिक और 4.प्राकृतिक प्रलय। 
 
1.नित्य प्रलय : वेदांत और पुराणों के अनुसार जीवों की नित्य होती रहने वाली मृत्यु को नित्य प्रलय कहते हैं। जो जन्म लेते हैं उनकी प्रतिदिन की मृत्यु अर्थात प्रतिपल सृष्टी में जन्म और मृत्य का चक्र चलता रहता है।
कई तरह की प्राकृतिक आपदाओं को भी नित्य प्रलय के अंतर्गत रखा जाता है। यह छोटी-मोटी जल प्रलय भी हो सकती है और तूफान भी। प्रत्येक मौसम या ऋतु के बदलाव के वक्त यह प्रलय होती रहती है। व्यक्ति के भीतर भी नित्य प्रलय चलती रहती है। इस वक्त धरती और ब्रह्मांड में प्रतिसेकंड नित्य प्रलय जारी है। 
 
2.आत्यन्तिक प्रलय : आत्यन्तिक प्रलय योगीजनों के ज्ञान के द्वारा ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं। अर्थात मोक्ष प्राप्त कर उत्पत्ति और प्रलय चक्र से बाहर निकल जाना ही आत्यन्तिक प्रलय है। मृत्य से बढ़कर है मोक्ष।
 
3.नैमित्तिक प्रलय : वेदांत के अनुसार प्रत्येक कल्प के अंत में होने वाला तीनों लोकों का क्षय या पूर्ण विनाश हो जाना नैमित्तिक प्रलय कहलाता है। पुराणों अनुसार जब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है, तब विश्व का नाश हो जाता है। एक कल्प को ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है। इसी प्रलय में धरती या अन्य ग्रहों से जीवन नष्ट हो जाता है।
 
नैमत्तिक प्रलयकाल के दौरान कल्प के अंत में आकाश से सूर्य की आग बरसती है। इनकी भयंकर तपन से सम्पूर्ण जलराशि सूख जाती है। समस्त जगत जलकर नष्ट हो जाता है। इसके बाद संवर्तक नाम का मेघ अन्य मेघों के साथ सौ वर्षों तक बरसता है। वायु अत्यन्त तेज गति से सौ वर्ष तक चलती है। उसके बाद धीरे धीरे सब कुछ शांत होने लगता है। तब फिर से जीवन की शुरुआत होती है।
 
अगले पन्ने पर जानिये कि कैसे प्राकृत प्रलय ही असल में प्रलय है...

4.प्राकृत प्रलय : ब्राह्मांड के सभी भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो जाना या भस्मरूप हो जाना प्राकृत प्रलय कहलाता है। वेदांत और पुराणों के अनुसार प्राकृत प्रलय अर्थात प्रलय का वह उग्र रूप जिसमें तीनों लोकों सहित महतत्व अर्थात प्रकृति के पहले और मूल विकार तक का विनाश हो जाता है और प्रकृति भी ब्रह्म में लीन हो जाती है अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड शून्यावस्था में हो जाता है। न जल होता है, न वायु, न अग्नि होती है और न आकाश और ना अन्य कुछ। सिर्फ अंधकार रह जाता है।
पुराणों अनुसार प्राकृतिक प्रलय ब्रह्मा के सौ वर्ष बीतने पर अर्थात ब्रह्मा की आयु पूर्ण होते ही सब जल में लय हो जाता है। कुछ भी शेष नहीं रहता। जीवों को आधार देने वाली ये धरती भी उस अगाध जलराशि में डूबकर जलरूप हो जाती है। उस समय जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में और आकाश महतत्व में प्रविष्ट हो जाता है। महतत्व प्रकृति में, प्रकृति पुरुष में लीन हो जाती है।
 
उक्त चार प्रलयों में से नैमित्तिक एवं प्राकृतिक महाप्रलय ब्रह्माण्डों से सम्बन्धित होते हैं तथा शेष दो प्रलय देहधारियों से सम्बन्धित हैं।
 
प्रलय काल में पृथ्वी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में और वायु आकाश में लीन होकर पुनः बिंदु रूप में आ जाती है। यही संकोच और विस्तार प्रलय और सृजन है तथा प्राणि-मात्र में जन्म और मृत्यु है। बिंदु रूप ब्रह्म वामाशक्ति है क्योंकि वही विश्व का वमन (यानी उत्पन्न) करती है-
 
ब्रह्म बिंदुर महेशानि वामा शक्तिर्निगते....
 
इस तरह ब्रह्मा के 15 वर्ष व्यतीत होने पर एक नैमित्तिक प्रलय होता है- फिर ब्रह्मा के 100 वर्ष व्यतीत होने पर तीसरा प्रलय होता है- जिसे द्विपार्थ कहा गया है। ब्रह्मा के 50 वर्ष को एक परार्ध कहा गया है। इस तरह दो परार्ध यानी एक महाकल्प। ब्रह्मा का एक कल्प पूरा होने पर प्रकृति, शिव और विष्णु की एक पलक गिर जाती है। अर्थात उनका एक क्षण पूरा हुआ, तब तीसरे प्रलय द्विपार्थ में मृत्युलोक में प्रलय शुरू हो जाता है।
फिर जब प्रकृति, विष्णु, शिव आदि की एक सहस्रबार पलकें गिर जाती हैं तब एक दंड पूरा माना गया है। ऐसे सौ दंडों का एक दिन 'प्रकृति' का एक दिन माना जाता है- तब चौथा प्रलय 'प्राकृत प्रलय' होता है- जब प्रकृति उस ईश्वर (ब्रह्म) में लीन हो जाती है। अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड भस्म होकर पुन: पूर्व की अवस्था में हो जाता है, जबकि सिर्फ ईश्वर ही विद्यमान रह जाते हैं। न ग्रह होते हैं, न नक्षत्र, न अग्नि, न जल, न वायु, न आकाश और न जीवन। अनंत काल के बाद पुन: सृष्टि प्रारंभ होती है।

गुरुवार, 30 जनवरी 2020

अहिंसा परमो धर्म का पूरा श्लोक क्या है? क्या हैं इस श्लोक का अर्थ

अहिंसा परमो धर्म का पूरा श्लोक क्या है? क्या हैं इस       श्लोक का अर्थ
जैसा की सबको मालूम हैं की भारत के राष्ट्र पिता कहते हैं का एक महत्त्व पूर्ण श्लोक हैं   
“अहिंसा परमो धर्म ”  जिसकी वाहवाही पूरी दुनिया करती हैं। लकिन क्या आप जानते हैं की भारत के राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी ने इस श्लोक को जान बूझकर या अनजाने में अधूरा ही पढ़ा हैं। महात्मा गाँधी ने पूरी दुनिया को यही सन्देश दिया की “अहिंसा परमो धर्म ” यानि अहिंसा से ऊपर कोई भी धर्म नहीं हैं। आईये हम आपको बताते हैं की इस श्लोक की उत्पत्ति कहा से हुई और कैसे हुई। 
       
    
उत्पत्ति – इस श्लोक की उत्पत्ति हमारे श्रेष्ठ भारत के महाकाव्य महाभारत में हुई। जब महाभारत ग्रंथ में पांडवो को 12 वर्षों का वनवास मिलता हैं तो वो अनेक ऋषि-मुनियों के संपर्क में आते हैं जिनसे उन्हें भांति-भांति का ज्ञान मिलता है। इसी अवधि में उनका ऋषि मारकंडेय से भी परिचय होता है। ऋषि मारकंडेय के मुख से उन्हें कौशिक नाम के ब्राह्मण और धर्मनिष्ठ व्याध के बीच के वार्तालाप की बात सुनने को मिलती है। यह श्लोक उसी के अंतर्गत उपलब्ध है
“अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: ”
इस श्लोक के अनुसार अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं और जब जब धर्म पर आंच आये तो उस धर्म की रक्षा करने के लिए की गई हिंसा उससे भी बड़ा धर्म हैं। यानि हमें हमेशा अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए लकिन अगर हमारे धर्म पर और राष्ट्र पर कोई आंच आ जाये तो हमें अहिंसा का मार्ग त्याग कर हिंसा का रास्ता अपनाना चाहिए। क्यूंकि वह धर्म की रक्षा की लिए की गई हिंसा ही सबसे बड़ा धर्म हैं। जैसे हम अहिंसा के पुजारी है लकिन अगर कोई हमारे परिवार को कोई हानि पहुंचता हैं तो उसके लिए की गई हिंसा सबसे बड़ा धर्म हैं। वैसा ही हमारे राष्ट्र के लिए हैं।
भारतीय नेताओं ने हमारे महान राष्ट्र भारत के महाकाव्य महाभारत के इस सबसे महत्वपूर्ण श्लोक को लोगों तक पूरा नहीं पहुंचाया है । इसलिए आपको उस अधूरे श्लोक को पूरा जरूर पड़ना चाइये
दुर्भाग्यवश इस श्लोक को कुछ राजनीतिक स्वार्थों के लिए पूरा न बताकर भारत वासियों के साथ छल किया गया। उन्हें पूर्ण श्लोक कभी बताया ही नहीं गया ।

“अहिंसा परमो धर्मः” (यह गलत हे, पूर्ण नहीं हे )
जबकि पूर्ण श्लोक इस तरह से है। “अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: ”
(अर्थात् यदि अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उस से भी श्रेष्ठ है)
आपने देखा होगा की हिन्दू भगवान् हमेशा शस्त्र और आशीर्वाद की मुद्रा में होते हैं वो इसलिए हैं क्यूंकि वो निर्दोष को क्षमा करते हैं और पापी को दंड देते हैं

बुधवार, 22 जनवरी 2020

MYTHINKING

                     MYTHINKING



kahi padha tha ki

            kuch pane k
              kuch khona pdta hai.

but hum ye mante hai ki

              kuch pane k liye
               kuch karna pdta hai.



Radhe Radhe.....

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

नवधा भक्ति का विस्तार से वर्णन

Navdha bhakti
नवधा भक्ति का विस्तार से वर्णन करने के लिए, प्रत्येक प्रकार की भक्ति को गहराई से समझते हैं:

### 1. श्रवण (Shravan)
श्रवण का मतलब है भगवान की लीलाओं, गुणों और उपदेशों को सुनना। यह पहली और महत्वपूर्ण भक्ति है क्योंकि इसके माध्यम से भगवान के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। रामायण, महाभारत, भागवत पुराण जैसे ग्रंथों का पाठ और संतों की कथाएं सुनना श्रवण भक्ति के अंतर्गत आता है। 

### 2. कीर्तन (Kirtan)
कीर्तन का मतलब है भगवान के नाम, गुण, लीलाओं और महिमा का गायन करना। यह भक्त को आनंद और उत्साह प्रदान करता है। कीर्तन का उद्देश्य भगवान की प्रशंसा करना और दूसरों को भी भक्ति के मार्ग पर प्रेरित करना है। 

### 3. स्मरण (Smaran)
स्मरण का अर्थ है भगवान का ध्यान करना और उनके नाम, रूप, लीला और धाम का स्मरण करना। यह भक्ति व्यक्ति के मन को शुद्ध करता है और उसे भगवान के प्रति एकाग्र करता है। स्मरण दिन के किसी भी समय और किसी भी अवस्था में किया जा सकता है।

### 4. पादसेवन (Paadsevan)
पादसेवन का मतलब है भगवान के चरणों की सेवा करना। यह प्रतीकात्मक रूप से भगवान की सेवा का प्रतीक है। पादसेवन भक्ति में भक्त मंदिर में भगवान की मूर्तियों की सेवा, पूजा, और सजावट करता है।

### 5. अर्चन (Archan)
अर्चन का अर्थ है भगवान की पूजा और अर्चना करना। इसमें भगवान की मूर्ति या चित्र की फूलों, धूप, दीपक और अन्य पूजन सामग्री से पूजा करना शामिल है। अर्चन से व्यक्ति भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा और प्रेम को प्रकट करता है।

### 6. वंदन (Vandan)
वंदन का मतलब है भगवान को प्रणाम करना और उनकी वंदना करना। यह भक्त की विनम्रता और समर्पण को दर्शाता है। वंदन के माध्यम से भक्त भगवान के प्रति अपनी भक्ति और सम्मान को व्यक्त करता है।

### 7. दास्य (Daasya)
दास्य का अर्थ है भगवान की सेवा करना, उन्हें अपना स्वामी मानना। इस भक्ति में भक्त स्वयं को भगवान का सेवक मानता है और उनके आदेशों का पालन करता है। यह भक्ति भगवान हनुमान की भक्ति का उदाहरण है।

### 8. साख्य (Saakhya)
साख्य का मतलब है भगवान को अपना मित्र मानना और उनसे मित्रता करना। इस भक्ति में भक्त भगवान के साथ मित्रवत व्यवहार करता है। यह भक्ति भगवान कृष्ण और अर्जुन की मित्रता का उदाहरण है।

### 9. आत्मनिवेदन (Aatmanivedan)
आत्मनिवेदन का अर्थ है भगवान के प्रति आत्मसमर्पण करना। इसमें भक्त अपनी सभी इच्छाओं, भावनाओं और कार्यों को भगवान को समर्पित कर देता है। यह भक्ति का सबसे उच्चतम रूप है, जहां भक्त और भगवान के बीच कोई भेद नहीं रहता।

इन नौ प्रकार की भक्ति के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन को भगवान के प्रति समर्पित कर सकता है और आत्मिक शांति और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

भगवान राम और बाली का संवाद



भगवान राम और बाली का संवाद रामायण के किष्किंधा काण्ड में वर्णित है। जब राम और उनकी सेना किष्किंधा पहुंचते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि सुग्रीव का भाई बाली उससे राज्य छीनकर उसे निर्वासित कर चुका है। सुग्रीव और राम की मित्रता होती है और राम सुग्रीव को उसका राज्य वापस दिलाने का वचन देते हैं।

सुग्रीव, राम की सहायता से बाली को चुनौती देता है। बाली और सुग्रीव के बीच युद्ध होता है, और जब बाली सुग्रीव पर हावी हो जाता है, तब राम छिपकर बाली को अपने तीर से मार देते हैं। बाली घायल होकर गिर जाता है और उसके और राम के बीच एक संवाद होता है। इस संवाद में बाली राम से पूछता है कि उन्होंने छिपकर उसे क्यों मारा। बाली कहते हैं:

"हे राम! आप धर्मात्मा हैं, फिर आपने छिपकर मुझे क्यों मारा? यह धर्म के विरुद्ध है।"

राम उत्तर देते हैं:

"हे बाली! तुमने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक अपने पास रखकर अधर्म किया है। एक धर्म रक्षक राजा का कर्तव्य है कि वह अधर्म का नाश करे। मैंने धर्म के अनुसार ही कार्य किया है।"

राम के इस उत्तर से बाली को अपनी गलती का एहसास होता है और वह राम से क्षमा मांगता है। बाली अपने पुत्र अंगद को राम की सेवा में रखने का आग्रह करता है और फिर अपने प्राण त्याग देता है।
 

बुधवार, 1 जनवरी 2020

Karmayoga..

अथ तृतीयोऽध्यायः- कर्मयोग

 

ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता



अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥

arjuna uvāca
jyāyasī cētkarmaṇastē matā buddhirjanārdana.
tatkiṅ karmaṇi ghōrē māṅ niyōjayasi kēśava৷৷3.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें: 
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥

vyāmiśrēṇēva vākyēna buddhiṅ mōhayasīva mē.
tadēkaṅ vada niśicatya yēna śrēyō.hamāpnuyām৷৷3.2৷৷
भावार्थ : आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥
śrī bhagavānuvāca
lōkē.smindvividhā niṣṭhā purā prōktā mayānagha.
jñānayōgēna sāṅkhyānāṅ karmayōgēna yōginām৷৷3.3৷৷
भावार्थ :  श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3॥
न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥
na karmaṇāmanārambhānnaiṣkarmyaṅ puruṣō.śnutē.
na ca saṅnyasanādēva siddhiṅ samadhigacchati৷৷3.4৷৷
भावार्थ : मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
na hi kaśicatkṣaṇamapi jātu tiṣṭhatyakarmakṛt.
kāryatē hyavaśaḥ karma sarvaḥ prakṛtijairguṇaiḥ৷৷3.5৷৷
भावार्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
karmēndriyāṇi saṅyamya ya āstē manasā smaran.
indriyārthānvimūḍhātmā mithyācāraḥ sa ucyatē৷৷3.6৷৷
भावार्थ : जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥
yastvindriyāṇi manasā niyamyārabhatē.rjuna.
karmēndriyaiḥ karmayōgamasaktaḥ sa viśiṣyatē৷৷3.7৷৷
भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥7॥
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥
niyataṅ kuru karma tvaṅ karma jyāyō hyakarmaṇaḥ.
śarīrayātrāpi ca tē na prasiddhyēdakarmaṇaḥ৷৷3.8৷৷
भावार्थ :  तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥8॥


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥
yajñārthātkarmaṇō.nyatra lōkō.yaṅ karmabandhanaḥ.
tadarthaṅ karma kauntēya muktasaṅgaḥ samācara৷৷3.9৷৷
भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥