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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

स्थितप्रज्ञ की अवधारणा

 स्थितप्रज्ञ की अवधारणा भगवद गीता में एक महत्वपूर्ण शिक्षण है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया था। गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षणों का वर्णन किया है, जो व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक स्थिरता की अवस्था को दर्शाता है। आइए इसे गहराई से समझते हैं:



 1. **सुख-दुख में समानता**:

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति सुख और दुख के बीच में अंतर नहीं करता। वह जानता है कि जीवन में सुख और दुख दोनों अस्थायी हैं और वे समय के साथ बदलते रहते हैं। इसलिए, वह किसी भी स्थिति में मन को शांत और स्थिर रखता है। जैसे समुद्र की गहराई में सन्नाटा होता है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ का मन भी बाहरी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता।


 2. **राग-द्वेष से मुक्त**:

राग का मतलब है किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति अत्यधिक लगाव, और द्वेष का मतलब है किसी के प्रति घृणा। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति न तो किसी के प्रति अति प्रेम करता है और न ही किसी से घृणा करता है। वह संतुलित रहता है और हर परिस्थिति में निष्पक्ष दृष्टिकोण बनाए रखता है। यह उसका आत्म-नियंत्रण और गहन समझ का प्रतीक है।


 3. **कामना और क्रोध का अभाव**:

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपनी कामनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण रखता है। उसकी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती, वह केवल अपने कर्तव्यों का पालन करता है। इसी प्रकार, वह क्रोध से भी दूर रहता है। वह जानता है कि क्रोध व्यक्ति की मानसिक शांति और स्थिरता को नष्ट कर देता है, इसलिए वह अपने क्रोध को नियंत्रित करता है।


 4. **इन्द्रियों पर नियंत्रण**:

गीता में कहा गया है कि इन्द्रियां हमेशा वस्त्रों, ध्वनियों, स्पर्श, रूपों आदि की ओर आकर्षित होती हैं। लेकिन स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करता है। वह न तो इन्द्रियों की इच्छाओं का पालन करता है और न ही उन्हें अपनी आत्मा पर हावी होने देता है। यह आत्म-संयम का उत्कृष्ट उदाहरण है।


 5. **ज्ञानी और आत्मनियंत्रित**:

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति को आत्म-ज्ञान होता है। वह जानता है कि आत्मा अमर है और यह शरीर और मन से परे है। वह आत्मा के सत्य को समझता है और इसलिए वह किसी भी भौतिक या मानसिक विकारों से प्रभावित नहीं होता। यह ज्ञान उसे स्थिर और संतुलित बनाए रखता है।


 6. **कर्मयोग का पालन**:

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति निष्काम कर्म का पालन करता है, जिसका अर्थ है कि वह बिना किसी फल की इच्छा के अपने कर्तव्यों का पालन करता है। वह कर्म के परिणाम की चिंता नहीं करता और न ही उसमें उलझता है। उसके लिए कर्म केवल एक साधना है, जो उसे आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाती है।


 7. **मोह का अभाव**:

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति माया के जाल से मुक्त रहता है। वह जानता है कि संसार में सब कुछ अस्थायी है और माया के भ्रम में नहीं पड़ता। उसे संसार की वस्त्र, संबंध, या पद-प्रतिष्ठा का मोह नहीं होता।


 8. **मृत्यु और जीवन के प्रति समभाव**:

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति जीवन और मृत्यु को समान दृष्टि से देखता है। उसे ज्ञात है कि आत्मा अमर है और शरीर नश्वर। इसलिए वह न तो जीवन से अत्यधिक आसक्त होता है और न ही मृत्यु से डरता है।


 निष्कर्ष:

स्थितप्रज्ञ व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की स्थिति में होता है, जो सभी मानसिक और भौतिक विकारों से मुक्त रहता है। वह सच्चे अर्थों में एक ज्ञानी और योगी होता है, जिसने मन, इन्द्रियों और कर्मों पर पूरी तरह से नियंत्रण प्राप्त कर लिया होता है। उसका जीवन एक उदाहरण होता है कि कैसे एक व्यक्ति अपने आंतरिक शांति और ज्ञान के माध्यम से परमात्मा से जुड़ सकता है और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।